गुरु नानकदेव जयंती पर विशेष
गुरु नानकदेव जी केवल सिक्खों के ही नहीं, वरन् समूचे विश्व के गुरु थे। वह सच्चे बादशाह थे। उन्होंने सदैव सच का साथ दिया। उन्होंने औरों की तरह मात्र उपदेश नहीं दिये बल्कि जीवन में जो अनुभव किया, भोगा, उसका लोगों में सरल, सहज व सुंदर ढंग से वर्णन किया। उन्होंने कभी अपनी भाषा को क्लिष्ट या दुरूह नहीं बनाया। उनका मानना था कि जो अपनी बातें क्लिष्ट या दुरूह भाषा में कहता है, वह जनता से दूर हो जाता है। इसीलिए गुरु नानकदेव जी ने अपने उपदेशों के अलावा और ग्रंथों, कुरआन, वेदों व शास्त्रों में व्याप्त विचारों के निचोड़ को सरल बनाकर एक जगह आसान शब्दों में संकलित कर अभिव्यक्त किया। उन्होंने अपने जीवन में पूरे विश्व को मानवता का पाठ पढ़ाया।
अपने उपदेशों में मानवता को सर्वोच्च स्थान पर ज़िन्दा रखा। वह मूलतः हिन्दू खत्री थे। उन्होंने संस्कृत पढ़ी थी। मौलवी से फारसी भी पढ़ी। दोनों ही भाषाओं के वह मर्मज्ञ थे। शिष्य रहते हुए उन्होंने अपने दोनों ही शिक्षकों को अपने ही सवालों से निरुत्तर कर दिया था। उन्होंने पूछा कि क्या शिक्षा किसी गरीब के आंसू बन सकती है?, किसी निर्बल को मजबूत बना सकती है क्या?, किसी की पीड़ा हर सकती है क्या?…..जवाब मिला-नहीं। जवाब सुनकर गुरु नानकदेव ने कहा कि फिर ऐसी शिक्षा लेने का मतलब क्या है। ऐसा कहकर उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। वह विद्वान नहीं बनना चाहते थे। घरवालों ने जब देखा कि पढ़ाई-लिखाई इसके बस की नहीं है तो उन्हें व्यापार में लगाया गया। पिता ने कुछ रुपये दिये, कहा कि इससे व्यापार करो। व्यापार में भी सच्चा सौदा करके घर आना। सच्चा सौदा करने में भी गुरु नानकदेव जी ने मानवता को ऊपर रखा। रास्ते में कुछ लोग भूखे-प्यासे दिखे। उन्होंने सोचा कि इनके काम आने और इन्हें खाना खिलाने से बढ़िया सच्चा सौदा और क्या होगा। उन्होंने व्यापार के लिए मिले सारे रुपये भूखे-प्यासे लोगों पर खर्च कर दिये।
घरवालों ने सुना तो बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने गुरु नानकदेव की आदतों को सुधारने के लिए उनको एक बादशाह के खाद्य भंडार में सामान तौलने पर लगवा दिया। वहां भी गुरु नानकदेव जी ने लोगों को गिनती कर-करके सामान देना शुरू किया तो 13 पर आकर रुक गये। कहने लगे-तेरा, तेरा, तेरा। यानी सब लोगों का, इसलिए हिसाब क्या रखना। बादशाह को शिकायत मिली तो गुरु नानकदेव तलब कर लिये गये। उनसे पूछा तो गुरु नानकदेव बोले कि हिसाब तो एकदम पूरा है। सामान भी नहीं लुटाया। चाहो तो जांच करवा लो। कहते हैं कि बादशाह ने भंडारगृह की जांच कराई तो सामान पूरा का पूरा मिला। गुरु नानकदेव जी में गरीबों, ज़रूरतमंदों, पीड़ितों, बीमारों व बेसहारा महिलाओं के प्रति अतिरिक्त स्नेह व सेवाभाव था। इस बात के प्रमाण उनके जीवनकाल को पढ़ने पर मिलते हैं।
एक बार वह एक गांव में अपने शिष्यों के साथ पहुंचे। सेठ ने उनसे भोजन का आग्रह किया। इसे गुरु नानकदेव जी ने ठुकरा दिया और गांव से दूर एक कोढ़ी की कुटिया में जा बैठे। कोढ़ी से बोले आज का भोजन मैं आपके यहीं पर करूंगा। कोढ़ी बहुत खुश हुआ। उसने बड़े चाव से उनके लिए भोजन पकाया। सेठ को पता चला तो वह दौड़ा-दौड़ा कुटिया में आया। गुरु नानकदेव के मना करने पर भी सेठ अपने द्वारा बनवाये गये स्वादिष्ट व्यंजनों को खाने की जब ज़िद करने लगा तो गुरु नानकदेव ने एक हाथ में सेठ के भोजन की थाली में से एक पूरी उठाई दूसरे हाथ में कोढ़ी के हाथ की सूखी रोटी रखी। दोनों को निचोड़ा तो पूरी में से खून और रोटी में से दूध निकला। उन्होंने सेठ को कहा कि तुमने गरीबों का हक़ मारा है, तुम शोषक हो, इसलिए तुम्हारी पूरी में से खून निकला। कोढ़ी गरीब है, मजदूर है, मेहनती है, ईमानदार है, इसलिए इसके द्वारा पकाई गई रोटी में से दूध निकला। इसीलिए हमेशा ईमानदारी और मेहनत का ही खाना चाहिए।
गुरु नानकदेव का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब विदेशी आक्रांताओं का भारत में राज था। धर्म के ठेकेदारों का बोलबाला था और जाति अपने मूलमंत्र से दूर हो रही थी। ऐसे में गुरु नानकदेव ने प्रकाश के रूप में प्रकट होकर जगत में व्याप्त अंधियारा दूर करने का काम किया। गुरु नानक ऐसे पहले संत थे जिन्होंने जनता के बीच रहकर जनता की भाषा में अपनी बात कही। समाज को एक नई दिशा दी और ज्ञान दिया। उन्होंने कहा कि आज भी गुरुनानक देव के उपदेश प्रासंगिक हैं। उन्होंने समाज के हर तबके को मानवता के साथ जोड़ने का अटूट कार्य किया। एक बार वह मक्का जा पहुंचे। मस्जिद की ओर पांव करके सोने का जब विरोध हुआ तो उन्होंने कहा कि मेरे पांव उस जगह कर दो, जहां खुदा न हो। लोगों ने ऐसा ही किया लेकिन चमत्कार हो गया। गुरु नानक के पांव जिधर घुमाये जाते मस्जिद भी उसी ओर घूम जाती। उन्होंने लोगों को संदेश दिया कि आडम्बर छोड़ो। खुदा या भगवान हर ओर है। वह कण-कण में है। उसे पहचानो। एक और प्रसंग मिलता है। एक पहाड़ी पर वह अपनी मंडली के साथ गये। प्यास लगी तो अपने परम प्रिय शिष्य मरदाना से पहाड़ी के ऊपर बने चश्मे से पानी लेकर आने को कहा। वहां के पहरेदार ने चश्मे का पानी नहीं दिया। बार-बार इंकार कर देने पर मरदाना जब दुखी और परेशान हो उठा तो गुरु नानकदेव ने अपने पास की ज़मीन खोदकर पानी का झरना बहा दिया। इससे हुआ यह कि पहाड़ी पर बना चश्मा सूख गया। क्रोधित होकर पहरेदार ने एक चट्टान उनपर धकेली। गुरु नानकदेव जी ने अपने हाथ के पंजे से पहाड़ी को रोक दिया। आज वहां पंजा साहिब गुरुद्वारा देखने को मिलता है। इसके जरिये उन्होंने संदेश दिया कि पानी, ज़मीन, अनाज व दवाई पर किसी का अधिकार नहीं है। इनका मिल-जुलकर उपभोग करना चाहिए। गुरु नानकदेव जी सच में सच्चे और अच्छे मन के इंसान थे। वह हर जाति के गुरु थे। उन्होंने हमेशा मानवता का संदेश इंसानों को दिया। हिन्दू और मुस्लिमों को एक मंच पर लाने का सतत् प्रयास किया। दोनों ही कौम के ग्रंथो को गुरुबाणी में समावेशित किया।
विश्व को उनके किये गये सद्कार्यों का इतिहास संजोकर रखना चाहिए था लेकिन अफसोस पूरे विश्व ने उनके प्रयासों को ठीक से नहीं सराहा। उन्हें एक समुदाय विशेष का गुरु बनाकर रख दिया। अगर कट्टरवाद से यथार्थवाद के रास्ते आना है तो हमें गुरु नानकदेव, कबीर, रैदास जैसे सच्चे संतों की वाणी को सहेजना और संजोना होगा। उनके उपदेशों का प्रचार-प्रसार करना होगा। पूरा विश्व आज जिस आतंकी मुहाने पर बैठा हुआ है। क्षेत्रवाद व जातिवाद का जहां बोलबाला है। वैर-वैमनस्य की भावना चरम पर है, वहां सच्चे गुरुओं के आदर्शों को अपनाना बेहद ज़रूरी है।