काफी दिनों बाद एक बार फिर देवभूमि उत्तराखंड जाना हुआ। हालांकि इन दिनों मेरे मनपसंद फलों का मौसम है और अपने शहर के बाजार उनसे भरे भी पड़े हैं मगर न जाने क्या सोच कर तय किया कि इस बार जितने दिन भी पहाड़ पर रहूंगा, स्थानीय फलों का ही सेवन करूंगा । मेरी जानकारी में था ही कि इन दिनों पहाड़ के पेड़ भी फलों से लद जाते हैं और काफल, किरमोड़, घिंगारू, पांगर तथा बेडू जैसे न जाने कितने किस्म के ऐसे फलों की बहार होती है जिन्हें हम समतल जगह वाले लोगों ने आमतौर पर देखा भी नहीं होता । ये फल न केवल स्वाद में लाजवाब होते हैं बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी बेहद फायदेमंद होते हैं । काफल तो उत्तराखंड का राजकीय फल ही है, जो मीठा, खट्टा और रसीला होता है. और उसमें एंटी-ऑक्सीडेंट और अनेक विटामिन भी होते हैं । देवभूमि के पहाड़ों पर तिमला, मेलू, अमेज, दाडि़म, करौंदा, तूंग, जंगली आंवला, खुबानी, हिसर, किनगोड़ जैसे अनेक अन्य जंगली फल भी पाए जाते हैं, जो इंसानी सेहत के लिए बेहद मुफीद होते हैं। मगर यह क्या ? चंबा, टिहरी और काना ताल के बाजारों में कहीं भी कोई स्थानीय फल ढूंढे से भी नहीं मिला । वहां के बाजार भी उन्हीं आमों, लीची, आड़ू और सेब से भरे पड़े थे जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश अथवा दिल्ली की आजाद पुर सब्जी मंडी से वहां पहुंचे थे । बेशक सवाल छोटा सा था मगर मैं उसमें अटक गया कि पहाड़ का फल जब पहाड़ पर ही नहीं मिलता तो बाकी देश के बाशिंदे उनका सेवन कैसे करेंगे ? ऐसे में इन नायाब फलों के निर्यात की बात तो सोची भी कैसे जा सकती है ?
स्थानीय लोगों से जब इस विषय में बात की तो पता चला कि सेब, माल्टा, आड़ू और खुबानी जैसे पारंपरिक फलों को छोड़ कर अन्य स्थानीय फलों की वहां खेती ही नहीं की जाती और प्राकृतिक रूप से जो फल जितना भी उपलब्ध होता है, उसे ही स्थानीय लोग इस्तेमाल कर लेते हैं। इन बेहतरीन फलों को बाज़ार तक पहुंचाने के लिए आज तक कोई प्रयास न तो सरकार ने किया है और न ही काश्तकारों ने । ले देकर बुरांश के फूल का रस जरूर बोतलों में बंद कर पर्यटकों को बेचा जाने लगा है मगर बुरांश का फल तो अभी भी बाजार तक नहीं पहुंचा । जबकि यह फल भी स्वादिष्ट होने के साथ साथ अनेक बीमारियों के इलाज में भी उपयोगी होता है। दुनिया जानती है कि उत्तराखंड के अधिकांश फल जैविक रूप से उगाए जाते हैं और इन फलों के पेड़ मिट्टी के कटाव को रोकने और जैव-विविधता को बनाए रखने में भी मदद करते हैं । काफल, हिसालू, और बेड़ू जैसे फल तो स्थानीन संस्कृति, लोकगीतों और लोककथाओं का भी महत्वपूर्ण हिस्सा हैं ।
पहाड़ से लौट कर पड़ताल की तो पता चला कि साल 2016 से अब तक उत्तराखंड में फलों के लिए आरक्षित भूमि में 54 फीसदी की कमी आई है और इसी के चलते फलों का उत्पादन भी 60 फीसदी घट गया है। वर्ष 2016 में 4551 मीट्रिक टन फलों का यहां से निर्यात होता था जो अब घटते घटते मात्र 1192 मीट्रिक टन ही रह गया है। हैरानी की बात नहीं है कि उत्तम क्वालिटी के फलों का उत्पादन करने के बावजूद राज्य से अब मात्र 4 करोड़ 68 लाख का ही निर्यात होता है ? इन फलों में भी केवल वही फल हैं जो हमें आमतौर पर अपने गली मोहल्ले में भी मिल जाते हैं। केवल पहाड़ पर ही मिलने वाले फल सिरे से गायब हैं । जाहिर है कि राज्य सरकार का इस ओर कतई ध्यान नहीं है और यही कारण है कि किसान फलों की बागवानी को लेकर उदासीन हो रहे हैं। कई बार घोषणा के बावजूद राज्य में काश्तकारों को ओला वृष्टि जैसी आपदाओं से निपटने को सब्सिडी नहीं दी जा रही और किसानों को मंडियों से जोड़ने को कोई महत्वपूर्ण पहल भी अब तक नहीं की गई।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि इतने महत्वपूर्ण विषय पर भी राज्य सरकार का ध्यान नहीं है तो फिर उसका ध्यान कहां है ? इसका सीधा सा जवाब है- धार्मिक पर्यटन और केवल धार्मिक पर्यटन। आंकड़े बताते हैं कि 66 हजार करोड़ के सालाना बजट वाली राज्य सरकार ने 12 हजार करोड़ रुपए तो केवल चार धाम यात्रा पर ही खर्च कर दिए हैं। आए दिन अखबार इस यात्रा को लेकर पूरे पूरे पेज के विज्ञापनों से भरे ही होते हैं। बेशक चार धाम यात्रा से राज्य को अच्छे खासे राजस्व की प्राप्ति होती है और स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिलता है मगर राजस्व और रोजगार तो फलों का उत्पादन भी दे सकता है, उस बारे में क्यों नहीं कोई सोचता ? मैं जानता हूं कि इसका जवाब आप मुझसे बेहतर जानते हैं।